सूर्योदय का रंग छूता हूँ गीली हो जाती है पूरी हथेली छाप-छाप कर भरता हूँ उम्र का कैनवास इसी तरह मेरे जीवन में चित्र बचे रहते हैं।
हिंदी समय में प्रेमशंकर शुक्ल की रचनाएँ